रविवार, 30 नवंबर 2008

धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर { द्वारा अन्योनास्ति }

प्रस्तुतकर्ता '' अन्योनास्ति " { ANYONAASTI } / :: कबीरा :: पर 11/30/2008 08:58:00 pm

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कहना तो बहुत कुछ होता था ,पर जब कहने बैठते तो समझ में नही आता था कि कहाँ से आरम्भ करें ?
पर कहीं से शुरू तो करना ही था। आईये सबसे गरमा- गरम विषय के सबसे जलते शब्द "धर्म को " उठाते हैं
पता नही हमारे महान देश भारतवर्ष के तथाकथित महान प्रबुद्ध लोग "धर्म" शब्द से
इतना डरते क्यों हैं ? मैं तो यही समझ पाया हूँ कि देश के अधिकांश "महान प्रबुद्ध " लोगों ने धर्म के बारे में अंगरेजी भाषा के "रिलीजन " के माध्यम से ही जाना ,है न की धर्म को धर्म के माध्यम से । यही कारण है कि वे धर्म को "सम्प्रदाय "के पर्यायवाची के रूप में ही जानते हैं ,जबकि सम्प्रदाय धर्म का एक उपपाद तो हो सकता है पर मुख्य धर्म रूप नही ।
"धर्म प्राकृतिक ,सनातन एवं शाश्वत तथा स्वप्रस्फुटित (या स्वस्फूर्त )होता है : : इसे कोई प्रतिपादित एवं संस्थापित नही करता है : जब कि सम्प्रदाय किसी द्वारा प्रतिपादित तथा संस्थापित किया जाता है "|
आखिर धर्म ही क्यों ?
संस्कृत व्याकरण के नियम "निरुक्ति " के अनुसार धर्म शब्द की व्युत्पत्ति " धृ " धातु से हुयी है ; निरुक्ति के अनुसार जिसका अर्थ है ' धारण करना" {मेरे अनुसार धारित या धारणीय है अथवा धारण करने योग्य होता है } क्यों कि पृथ्वी हमें धारण करती है और इसी कारण से इसे धरणी कहते हैं|

अतः स्पष्ट है ''धर्म का अर्थ भी धारण करना ही होगा ''
इसे इस प्रकार समझें " धृ + मम् = धर्म ''

धारण करना है तो '' हमें धर्म के रूप में क्या धारण करना है ?''

आप को धारण करना है '' अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व ''
या
'' फ़रायज़ और जिम्मेदारियां ''
या
'' ड्यूटी एंड रेसपोंसबिलटीज [[ लायेबिलटीज ]] ''

  • :: धार्मिक व्यक्ति सदैव एक अच्छा समाजिक नागरिक होता है क्यों कि वह धर्मभीरु होता है और एक धर्मभीरुव्यक्ति सदैव समाजिक व्यवस्था के प्रति भी भीरु अर्थात प्रतिबद्ध ही होगा :: परन्तु एक सम्प्रदायिक व्यक्तिरूढ़वादी होने के कारण केवल अपने सम्प्रदाय के प्रति ही प्रतिबद्ध होता है।"
    इसलिए मेरी दृष्टि में धार्मिक होना,सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा एक अच्छी बात है .
अभी तक मैं ने दो ही तथ्य कहे हैं :--
"धर्म प्राकृतिक होता ही ; जब कि सम्प्रदाय संस्थापित एवं प्रतिपादित होता है"।

२ " सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा धार्मिक होना ही उचित होगा "।

  • भारत के परिपेक्ष में संप्रदाय के आलावा एक शब्द ' पंथ ' भी प्रयोग में आता है "पंथ" शब्द का अर्थ पथ/ राह /रास्ता /दिशा " होता है ।''सम्प्रादाय एवं पंथ दोनों का भाव व उद्देश्य एक ही होता है,परन्तु '' पन्थ '' में मुझे सम्प्रदाय की अपेक्षा गतिशीलता अनुभव होती है | मैं शब्दों के हेरफेर से फ़िर से दोहरा रहा हूँ ,"धर्मों को कोई उत्पन्न नही करता ,वे प्राकृतिक हैं उनकी स्थापना स्वयं प्रकृति करती है ।"::" जबकि सम्प्रदाय के द्वारा हम में से ही कोई महामानव आगे आ कर , कुछ नियम निर्धारित करता है ,यहाँ तक कि पूजा पद्धति भी उस में आ जाती है | हर युग में कोई युगदृष्टा महा मानव पीर ,औलिया ,रब्बी ,मसीहा या ,पैगम्बर के रूप में सामने आता है अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो प्रकृति द्वारा चुना जाता है ; जो देश क्षेत्र एवं युग-काल विशेष कि परिस्थियों की आवश्यकताओं के परिपेक्ष्य में मानव समाज के समुदायों को उन्ही के हित में आपसमें बांधे रखने के लिए एवं सामाजिक व्यवस्था को व्यवस्थित रखते हुए चलाने के लिए ; जीवन के हर व्यवहारिक क्षेत्र के प्रत्येक सन्दर्भों में समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए , समाज व एक दूसरों के प्रति कुछ उत्तर दायित्व एवं कर्तव्य निर्धारित करता है :उनके परिपालन के लिए कुछ नियम प्रतिपादित करता है और "समान रूप से एक दूसरे के प्रति 'प्रतिबद्धता 'के समान नियमों को स्वीकार करने एवं उनका परिपालन करने वाले समुदाय को ही एक '' सम्प्रदाय '' कह सकते हैं | सम्प्रदाय के निर्धारित नियम वा सिद्धान्त किसी ना किसी रूप में लिपिबद्ध या वचन-बध्द होते हैं,| देश - काल एवं समाज की , चाहे कैसी भी कितनी ही बाध्यकारी परिस्थितियाँ क्यों न हों उन नियमों में कोई भी परिवर्तन या संशोधन अमान्य होता है।
  • यहाँ पर ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जो नियम देश युग-काल के सापेक्ष निर्धारित किए गए थे वे यदि परिस्थितयों युग -काल के बदलने के साथ साथ ,नई परिस्थितियों एवं युग -काल के परिपेक्ष्य में यदि संशोधित तथा परिवर्तित नही किए जाते तो वह रूढ़वादिता को जन्म देते हैं और " रूढ़वादिता के गर्भ से ही साम्प्रदायिकता जन्म लेती है "
  • सम्प्रदाय का उद्भव कई तरीकों से होता है ।

10 टिप्पणियाँ on "धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर { द्वारा अन्योनास्ति }"

david santos on 2 दिसंबर 2008 को 2:51 am बजे ने कहा…

Excellent posting!
Have a nice day!

योगेन्द्र मौदगिल on 7 दिसंबर 2008 को 8:11 pm बजे ने कहा…

सामयिक व सटीक चिंतन के लिये साधुवाद

Manoj Kumar Soni on 9 दिसंबर 2008 को 11:45 pm बजे ने कहा…

आपके ब्लाग मे काले रंग की इतनी प्रधानता है.
क्यो?
कृपया मेरा भी ब्लाग देखे और टिप्पणी दे

http://www.ucohindi.co.nr

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) on 14 दिसंबर 2008 को 1:23 am बजे ने कहा…

धर्म क्या है....मेरी समझ से ये बातचीत से अधिक अन्दर की बात है....हमारे भीतर का विवेक है.....मगर हम....?? हम बात ज्यादा करते हैं...भीतर की बात सुनते ही नहीं.....!!बढ़िया है...बढ़िया है.....!!

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } on 15 दिसंबर 2008 को 1:52 pm बजे ने कहा…

धर्म पर जो कुहासा छाया है आप जैसे व्यक्ति अपने उत्क्रष्ट विचारो से ही दूर कर सकते है . धर्म की चर्चा राजनीती के कुचक्र मे फस कर सांप्रदायिक हो गयी है

इरशाद अली on 19 दिसंबर 2008 को 9:57 pm बजे ने कहा…

क्या बात है , सहजता और सृजन को साथ लेकन आप बखूबी लिखना जानते है। विषय नाजूक था, लेकिन आपने सहजता से ही बात को कह दिया। मैने कुछ और लेख भी आपके पढ़ें। कुछ और नाजूक विषयों को भी छुएं।

डॉ. मनोज मिश्र on 5 जुलाई 2009 को 11:44 am बजे ने कहा…

गंभीर व्याख्या के लिए बधाई .

संदीप on 6 जुलाई 2009 को 9:58 am बजे ने कहा…

यह तो ठीक है कि धर्म और संप्रदाय अलग अलग अवधारणाएं हैं। लेकिन धर्म प्राकृतिक कैसे होता है और सांप्रदायिकता, धार्मिकता की तुलना में अधिक रूढ़ होती है, इसको स्‍पष्‍ट करें।

स्वप्न मञ्जूषा on 29 जुलाई 2009 को 1:15 am बजे ने कहा…

संप्रदाय:
जब एक ही तरह की धार्मिक या दार्शनिक परम्परागत प्रथाओं, सिद्धांतों का प्रसार करने वाले, या मानने वाले लोग, इकाट्ठे हो जाते हैं तब एक संप्रदाय का निर्माण होता है

धर्म:
धर्म का अर्थ जैसा की आपने बताया धारण करना, आत्मसात करना, अपने साथ साथ लेकर चलना या स्वीकार करना, और अब क्या स्वीकार करना, उन लौकिक या जगत सम्बन्धी नियमों को जो मूलतः ३ धार्मिक पुस्तकों में हैं , रामायण, महाभारत और गीता, अगर सरल शब्दों में कहें तो नियम, निति, साधुता, भक्ति, न्याय, कर्त्तव्य और व्यवस्था को जो स्वीकारता है धार्मिक कहलाता है ..

संप्रदाय में परम्परागत प्रथाएँ आती हैं गुरु शिष्य परम्परा से और यह गुरु से जुडी होती हैं, गुरु ने जो कहा मानना होता है इसलिए इसमें कट्टरता आती है, और सभी गुरु अपनी डफली अपना राग अलापने में रहते हैं....

इन प्रथाओं का धर्म में कोई स्थान नहीं होता, धर्म बहुत ही व्यापक होता है, व्यक्ति विशेष का अपना चुनाव होता है, इसलिए कट्टरता के लिए कोई स्थान नहीं होता....

कबीरा जी आपकी रचना ऐसी है जो किसी भी काल में सामयिक कही जायेगी,और कभी भी इसे ज्वलंत ही कहा जायेगा, आपने बहुत ही अच्छे तरीके से समझाया हैं, मैंने भी अपने विचार थोड़े से डाल दिए हैं, आपके जितनी मेधा तो नहीं है मुझमें , अगले १०-१२ वर्षों में शायद यह संभव हो...

सुधीर राघव on 23 अगस्त 2009 को 5:09 pm बजे ने कहा…

धर्म शब्द अब अपने मूल अर्थ खो बैठा है। अब यह आम जनमानस में बोला तो जाता है मगर संदर्भ सांप्रदाय तक सीमित होता है। धर्म परिवर्तन, मंदिर मस्जिद विवाद और धर्म के नाम पर अलग-अलग पैदा हुए संप्रदायों द्वार अपनी संख्या बढ़ाने के प्रयास। यानी सारी परिभाषा ही बिगड़ गई है और अब यह शब्द पूरी दुनिया में ही मेलमिलाप से ज्यादा लड़वाने और हिन्सा के काम आ रहा है। यह नया नहीं हैं एक हजार सालों से देश यह सब भुगत रहा है। पिछले एक हजार साल में जो परिभाषा बिगड़ी है वह आसानी से नहीं सुधरने वाली।

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टीपियाने ने पहले पढ़ने के अनुरोध के साथ:
''गंभीर लेखन पर अच्छा,सारगर्भित है ,कहने भर सेकाम नही चलेगा;पक्ष-विपक्ष की अथवा किसी अन्य संभावना की चर्चा हेतु प्रस्तुति में ही हमारे लेखन की सार्थकता है "
हाँ विशुद्ध मनोरनजक लेखन की बात अलग है ; गंभीर लेखन भी मनोरनजक {जैसे 'व्यंग'} हो सकता है '|

वैसे ''पानाला गिराएँ, जैसे चाहे जहाँ, खटोला बिछाएँ
कहाँ यह आप की मर्ज़ी ,आख़िरी खुदा तो आप ही हो ''

 

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