'' पर सभी का अधिकार है इस इसी सिद्धांत को स्वीकार करते हुए हारवर्ड बिजिनेस स्कूल आदि जैसी 1oo से अधिक प्रमुख्य एवं सुप्रसिद्ध शिक्षण संस्थानों तथा प्रसिद्द वीडियो -शेयरिंग वेब-साईट यूट्यूब [ youtube.com ] ने परस्पर संयुक्त - सहयोग करने का निर्णय किया है । मार्च 2009 से 'यूट्यूब ने अपनी वेब साईट पर शिक्षा अनुभाग भी आरंभ किया है । " यूट्यूब के इस अनुभाग में विज्ञान ,गणित ,संगीत एवं अन्य विभिन्न विषयों के दुनिया के शीर्ष शिक्षण संस्थानों एवं विश्व विद्यालयों के कैम्पस में विषय विशेषज्ञों शिक्षकों के द्वारा दिए गये गए ,व्याख्यानों [ लेक्चर्स ] के ज्ञान- वर्धक वीडियों उपलब्ध हैं ।"शीर्ष शिक्षण संस्थानों एवं यूट्यूब के इस संयुक्त अभियान के फल - स्वरुप अब आर्थिक अभावों के अथवा किसी अन्य कारणों से श्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में शिक्षा न ले पाने वाले छात्र भी गुणवत्तापरक शिक्षा प्राप्त कर सकेंगें । इन शैक्षिक व्याख्यानों [ लेक्चर्स ] के वीडियो देखने हेतु यूट्यूब .कॉम [youtube.com] के मुख्य पृष्ठ पर जा कर केटेगरी [ catagry ] क्लिक कर कैटगरी खुलने पर एजुकेशन [Education] पर क्लिक कर आगे ढूंढ़ सकते है वैसे अभी होसकता है बहुत ज्यादा न मिले ,पर जरा योजना को परवान चढ़ने तो दें। |
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रविवार, 24 मई 2009
"अज्ञान से ज्ञान की ओर"
"ज्ञान पर सभी का अधिकार "
शुक्रवार, 23 जनवरी 2009
बुधवार, 31 दिसंबर 2008
' चिटठा चर्चा पर 'गाली-पुराण पर शस्त्रार्थ ''
"गाली पुराण पर शास्त्रार्थ "
लगभग गत दस- पंद्रह दिनों से चिटठा चर्चा पर गालियों पर लिखी गयी एक पोस्ट पर बीहड़ 'शस्त्रार्थ ' चल रहा है कुछ ब्लागरों को उक्त पोस्ट पर आपत्ति है कंही -कहीं लगा कि अधिकांश पुरूष ब्लागरों को विषय पर आपत्ति न होकर इसपर ज्यादा है कि उक्त पोस्ट एक महिला ब्लागर द्वारा लिखा गया है , और महिला ब्लागरों को लग रहा है कि पुरुषों ने जीवन के हर क्षेत्र पर बलात अधिकार जमा कर ''सकल जग पुरूष प्रधान कर राखा , ऊपर ते तरक बढावें सखा " [[तुलसी बाबा से क्षमा निवेदन सहित ]] | आधुनिक तथाकथित बुद्धिजीवी मान्यताओं के अनुसार दोनों पक्ष सही ही हैं |
होली एक ऐसा त्यौहार है जिसमें मानव मन को सार्वजनिक रूप से मन कि भड़ास निकालने कि परम्परा द्वारा अपने मन कि कुंठाएं निकालने कि अनुमति मिली है , परन्तु केवल सार्वजानिक रूप से | इस दिन लोग टोलियों में " कबीर " गाते हुए घूमते हैं |
'' कबीर '' का अर्थ यहाँ कबीर के दोहों से नही ;होली में गाये जाने वाले ये "कबीर '' गाली युक्त दोहे ,चौपाइयां ,कविता होती हैं | जब मन में कोई गांठ नही तो कोई वैमनस्य नही ,ऊपर से 'वसुधैव कुटुम्बकम ' के साथ 'अतिथि देवो भावः '' का जाप |
देखें '' बालकाण्ड ''दोहा संख्या 328 के तुरंत बाद की चौपाई ....
''पॅंच कवल करि जेवन लागे | गारि गान सुन अति अनुरागे || '' [पूर्वार्ध ]||
आगे तीसरी चौपाई का उत्तरार्ध देखें ....
'' जेवंत देहि मधुर धुन गारी | लै लै नाम पुरुष अरु नारी ||'' अगली चौपाई का पूर्वार्ध देंखे ...
'' समय सुहावनि गारि बिराजा | हँसत राउ सुनि सहित समाज़ा || ""
अब मैं दोनो स्वनामधन्य महानुभावो से जानना चाहता हूँ की जो बात समय सापेक्ष भाव और अर्थ पाती हो और हमारे सांस्कृतिक साहित्य का हिस्सा हो क्या उसे आप निकाल फेंक सकते ?
लगभग गत दस- पंद्रह दिनों से चिटठा चर्चा पर गालियों पर लिखी गयी एक पोस्ट पर बीहड़ 'शस्त्रार्थ ' चल रहा है कुछ ब्लागरों को उक्त पोस्ट पर आपत्ति है कंही -कहीं लगा कि अधिकांश पुरूष ब्लागरों को विषय पर आपत्ति न होकर इसपर ज्यादा है कि उक्त पोस्ट एक महिला ब्लागर द्वारा लिखा गया है , और महिला ब्लागरों को लग रहा है कि पुरुषों ने जीवन के हर क्षेत्र पर बलात अधिकार जमा कर ''सकल जग पुरूष प्रधान कर राखा , ऊपर ते तरक बढावें सखा " [[तुलसी बाबा से क्षमा निवेदन सहित ]] | आधुनिक तथाकथित बुद्धिजीवी मान्यताओं के अनुसार दोनों पक्ष सही ही हैं |
भारत कि सहिष्णुता विश्व प्रसिद्ध है ,आख़िर क्यों ? मानव मन कि जिन गाठों एवं दमित -भावनाओं कि बात सिगमंड फ्रायड ने इस युग में कही है ,उसके बारे में हमारे मनीषियों ने युगों-युगों पूर्व ही जान और समझ लिया था और उसका इलाज भी सामाजिक -सार्वजानिक कर दिया था !!!???
होली एक ऐसा त्यौहार है जिसमें मानव मन को सार्वजनिक रूप से मन कि भड़ास निकालने कि परम्परा द्वारा अपने मन कि कुंठाएं निकालने कि अनुमति मिली है , परन्तु केवल सार्वजानिक रूप से | इस दिन लोग टोलियों में " कबीर " गाते हुए घूमते हैं |
'' कबीर '' का अर्थ यहाँ कबीर के दोहों से नही ;होली में गाये जाने वाले ये "कबीर '' गाली युक्त दोहे ,चौपाइयां ,कविता होती हैं | जब मन में कोई गांठ नही तो कोई वैमनस्य नही ,ऊपर से 'वसुधैव कुटुम्बकम ' के साथ 'अतिथि देवो भावः '' का जाप |
'' ज़ेर-ए-बहस विषय की भाषा के सन्दर्भ में मेरा जो अध्ययन है ,उसी के आधार पर मेरा कहना है कि उक्त भाषा के कुछ शब्दों का भाव एवं अर्थ दोनो [ दोनों शब्दों की संधि ना कर अलग अलग जानते बूझते लिखा है ] सापेक्षिक होता है ,केवल और केवल किसी विवाद या वास्तविक झगड़े में ही उनके भावार्थ जीवंत होते हैं वारना वे केवल और केवल '' एक'तकिया कलाम '' से अधिक नही होते | "cm prasad ji एवम् रचना जी दोनो से एक प्रश्न क्या आप लोगों ''तुलसी कृत राम चरित मानस '' का नाम सुना है आशा है सुना भी होगा और उसका पाठ भी किया होगा ?
देखें '' बालकाण्ड ''दोहा संख्या 328 के तुरंत बाद की चौपाई ....
''पॅंच कवल करि जेवन लागे | गारि गान सुन अति अनुरागे || '' [पूर्वार्ध ]||
आगे तीसरी चौपाई का उत्तरार्ध देखें ....
'' जेवंत देहि मधुर धुन गारी | लै लै नाम पुरुष अरु नारी ||'' अगली चौपाई का पूर्वार्ध देंखे ...
'' समय सुहावनि गारि बिराजा | हँसत राउ सुनि सहित समाज़ा || ""
अब मैं दोनो स्वनामधन्य महानुभावो से जानना चाहता हूँ की जो बात समय सापेक्ष भाव और अर्थ पाती हो और हमारे सांस्कृतिक साहित्य का हिस्सा हो क्या उसे आप निकाल फेंक सकते ?
अगर इस प्रकरण का पटाक्षेप ''वर्ष 2008 के अवसान'' के साथ करते हुए , ब्लागीवूड '' सब की मंगल कामना की आकांक्षा एवं भावना के साथ नववर्ष 2009 '' को खुश-आमदीद कहे तो क्या ज़्यादा आनन्ददायक नही होगा ? "सभी को नववर्ष मंगलमय हो "
रविवार, 30 नवंबर 2008
धार्मिकता एवं सम्प्रदायिकता का अन्तर { द्वारा अन्योनास्ति }
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कहना तो बहुत कुछ होता था ,पर जब कहने बैठते तो समझ में नही आता था कि कहाँ से आरम्भ करें ?
पर कहीं से शुरू तो करना ही था। आईये सबसे गरमा- गरम विषय के सबसे जलते शब्द "धर्म को " उठाते हैं ।
पता नही हमारे महान देश भारतवर्ष के तथाकथित महान प्रबुद्ध लोग "धर्म" शब्द से
इतना डरते क्यों हैं ? मैं तो यही समझ पाया हूँ कि देश के अधिकांश "महान प्रबुद्ध " लोगों ने धर्म के बारे में अंगरेजी भाषा के "रिलीजन " के माध्यम से ही जाना ,है न की धर्म को धर्म के माध्यम से । यही कारण है कि वे धर्म को "सम्प्रदाय "के पर्यायवाची के रूप में ही जानते हैं ,जबकि सम्प्रदाय धर्म का एक उपपाद तो हो सकता है पर मुख्य धर्म रूप नही ।
"धर्म प्राकृतिक ,सनातन एवं शाश्वत तथा स्वप्रस्फुटित (या स्वस्फूर्त )होता है : : इसे कोई प्रतिपादित एवं संस्थापित नही करता है : जब कि सम्प्रदाय किसी द्वारा प्रतिपादित तथा संस्थापित किया जाता है "|आखिर धर्म ही क्यों ?
संस्कृत व्याकरण के नियम "निरुक्ति " के अनुसार धर्म शब्द की व्युत्पत्ति " धृ " धातु से हुयी है ; निरुक्ति के अनुसार जिसका अर्थ है ' धारण करना" {मेरे अनुसार धारित या धारणीय है अथवा धारण करने योग्य होता है } । क्यों कि पृथ्वी हमें धारण करती है और इसी कारण से इसे धरणी कहते हैं|
अतः स्पष्ट है ''धर्म का अर्थ भी धारण करना ही होगा ''
इसे इस प्रकार समझें " धृ + मम् = धर्म ''
धारण करना है तो '' हमें धर्म के रूप में क्या धारण करना है ?''
आप को धारण करना है '' अपने कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व ''
या
'' फ़रायज़ और जिम्मेदारियां ''
या
'' ड्यूटीज एंड रेसपोंसबिलटीज [[ लायेबिलटीज ]] ''
- :: धार्मिक व्यक्ति सदैव एक अच्छा समाजिक नागरिक होता है क्यों कि वह धर्मभीरु होता है और एक धर्मभीरुव्यक्ति सदैव समाजिक व्यवस्था के प्रति भी भीरु अर्थात प्रतिबद्ध ही होगा :: परन्तु एक सम्प्रदायिक व्यक्तिरूढ़वादी होने के कारण केवल अपने सम्प्रदाय के प्रति ही प्रतिबद्ध होता है।"
इसलिए मेरी दृष्टि में धार्मिक होना,सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा एक अच्छी बात है .
१ "धर्म प्राकृतिक होता ही ; जब कि सम्प्रदाय संस्थापित एवं प्रतिपादित होता है"।
२ " सम्प्रदायिक होने की अपेक्षा धार्मिक होना ही उचित होगा "।
- भारत के परिपेक्ष में संप्रदाय के आलावा एक शब्द ' पंथ ' भी प्रयोग में आता है "पंथ" शब्द का अर्थ पथ/ राह /रास्ता /दिशा " होता है ।''सम्प्रादाय एवं पंथ दोनों का भाव व उद्देश्य एक ही होता है,परन्तु '' पन्थ '' में मुझे सम्प्रदाय की अपेक्षा गतिशीलता अनुभव होती है | मैं शब्दों के हेरफेर से फ़िर से दोहरा रहा हूँ ,"धर्मों को कोई उत्पन्न नही करता ,वे प्राकृतिक हैं उनकी स्थापना स्वयं प्रकृति करती है ।"::" जबकि सम्प्रदाय के द्वारा हम में से ही कोई महामानव आगे आ कर , कुछ नियम निर्धारित करता है ,यहाँ तक कि पूजा पद्धति भी उस में आ जाती है | हर युग में कोई युगदृष्टा महा मानव पीर ,औलिया ,रब्बी ,मसीहा या ,पैगम्बर के रूप में सामने आता है अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो प्रकृति द्वारा चुना जाता है ; जो देश क्षेत्र एवं युग-काल विशेष कि परिस्थियों की आवश्यकताओं के परिपेक्ष्य में मानव समाज के समुदायों को उन्ही के हित में आपसमें बांधे रखने के लिए एवं सामाजिक व्यवस्था को व्यवस्थित रखते हुए चलाने के लिए ; जीवन के हर व्यवहारिक क्षेत्र के प्रत्येक सन्दर्भों में समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए , समाज व एक दूसरों के प्रति कुछ उत्तर दायित्व एवं कर्तव्य निर्धारित करता है :उनके परिपालन के लिए कुछ नियम प्रतिपादित करता है और "समान रूप से एक दूसरे के प्रति 'प्रतिबद्धता 'के समान नियमों को स्वीकार करने एवं उनका परिपालन करने वाले समुदाय को ही एक '' सम्प्रदाय '' कह सकते हैं | सम्प्रदाय के निर्धारित नियम वा सिद्धान्त किसी ना किसी रूप में लिपिबद्ध या वचन-बध्द होते हैं,| देश - काल एवं समाज की , चाहे कैसी भी कितनी ही बाध्यकारी परिस्थितियाँ क्यों न हों उन नियमों में कोई भी परिवर्तन या संशोधन अमान्य होता है।
- यहाँ पर ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जो नियम देश युग-काल के सापेक्ष निर्धारित किए गए थे वे यदि परिस्थितयों युग -काल के बदलने के साथ साथ ,नई परिस्थितियों एवं युग -काल के परिपेक्ष्य में यदि संशोधित तथा परिवर्तित नही किए जाते तो वह रूढ़वादिता को जन्म देते हैं और " रूढ़वादिता के गर्भ से ही साम्प्रदायिकता जन्म लेती है "
- सम्प्रदाय का उद्भव कई तरीकों से होता है ।
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